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कहाँ जा रहा हूँ | शाही शायरी
kahan ja raha hun

नज़्म

कहाँ जा रहा हूँ

पैग़ाम आफ़ाक़ी

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ज़मीं पहले ऐसी कभी भी न थी
पाँव मिट्टी पे होते थे

नज़रें उफ़ुक़ पर
हमें अपने बारे में मालूम होता था

हम कौन हैं
और क्या कर रहे हैं

कहाँ जा रहे हैं
मगर आज आलम ये है

पाँव रुकते नहीं
आँख खुलती नहीं

अजनबी रास्तों पर
मैं बढ़ता चला जा रहा हूँ