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जो बोले मारा जाए | शाही शायरी
jo bole mara jae

नज़्म

जो बोले मारा जाए

जमीलुद्दीन आली

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वक़्त ने पूछा
क्या तुम मुझ को जानते हो

हाँ
क्या तुम मुझ को मानते हो

नाँ
क्या मतलब है

क्या मतलब था
वक़्त भी चुप है

जाने वो कब क्या बोलेगा
आज की कितनी बातों को भी

कैसे कैसे बदलने वाले
बनते बनते ग़म से ख़ुशी से और हैरत से

अपनी आँखें मलने वाले
मीज़ानों में डंडी मार के या सच्चाई से तौलेगा

और फिर मैं भी चुप न रहूँगा
लेकिन

जो इस वक़्त मुझे भी कहना लाज़िम हो
वो कह न सकूँगा

शायद वो सब सह न सकूँगा
हाँ भई ले इस लम्हे मैं तुझ को मानता भी हूँ

अब ये छोड़ कि जानता भी हूँ
जो तू चाहे आज बता दे

वर्ना मुझ को अभी भुला दे
कौन अब क्या क्या किस को सिखाए

जो बोले वो मारा जाए
ऐ 'मीरा-जी' आप को तो सब भूल गए हैं

आप यहाँ और मुझ जैसे मातूब-ए-ज़माँ को आख़िर इक-दम क्यूँ याद आए