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जिस्म की कश्ती में आ | शाही शायरी
jism ki kashti mein aa

नज़्म

जिस्म की कश्ती में आ

शहरयार

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हवा के पाँव इस ज़ीने तलक आए थे लगता है
दिए की लौ पे ये बोसा उसी का है

मिरी गर्दन से सीने तक
ख़राशों की लकीरों का ये गुल-दस्ता

तिलिस्मी क़ुफ़्ल खुलने की इसी साअत की ख़ातिर
हिज्र के मौसम गुज़ारे हैं

हवा ने मुद्दतों में पाँव पानी में उतारे हैं
मिरी पिसली से पैदा हो

वही गंदुम की बू ले कर
ज़मीं और आसमाँ की वुसअतें

मुझ में सिमट आएँ
उलूही लज़्ज़त-ए-नायाब से सरशार कर मुझ को

मैं इक प्यासा समुंदर हूँ
तू अपनी जिस्म की कश्ती में आ

और पार कर मुझ को