यहाँ दरख़्त के ऊपर उगा हुआ है दरख़्त
ज़मीन तंग है (जैसे कभी फ़राख़ न थी)
हवा का काल पड़ा है, नमी भी आम नहीं
समुंदरों को बिलो कर फ़ज़ाओं को मथ कर
जनम दिए हैं अगर चंद अब्र के टुकड़े
झपट लिया है उन्हें यूँ दराज़ शाख़ों ने
कि नीम-जाँ तने को ज़रा ख़बर न हुई
जड़ें भी ख़ाक तले एक ही लगन में रवाँ
न तीरगी से मफ़र है, न रौशनी का सवाल
ज़मीं में पाँव धँसे हैं फ़ज़ा में हात बुलंद
नई जिहत का लगे अब दरख़्त में पैवंद
नज़्म
जिहत की तलाश
शकेब जलाली