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इस्राफ़ील की मौत | शाही शायरी
israfil ki maut

नज़्म

इस्राफ़ील की मौत

नून मीम राशिद

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मर्ग-ए-इस्राफ़ील पर आँसू बहाओ
वो ख़ुदाओं का मुक़र्रब वो ख़ुदावंद-ए-कलाम

सौत-ए-इंसानी की रूह-ए-जावेदाँ
आसमानों की निदा-ए-बे-कराँ

आज साकित मिस्ल-ए-हर्फ़-ए-ना-तमाम
मर्ग-ए-इस्राफ़ील पर आँसू बहाओ

आओ इस्राफ़ील के इस ख़्वाब-ए-बे-हंगाम पर आँसू बहाएँ
आर्मीदा है वो यूँ क़र्ना के पास

जैसे तूफ़ाँ ने किनारे पर उगल डाला उसे
रेग-ए-साहिल पर चमकती धूप में चुप चाप

अपने सूर के पहलू में वो ख़्वाबीदा है
उस की दस्तार उस के गेसू उस की रीश

कैसे ख़ाक-आलूदा हैं
थे कभी जिन की तहें बूद-ओ-नबूद

कैसे इस का सूर इस के लब से दूर
अपनी चीख़ों अपनी फ़रियादों में गुम

झिलमिला उठते थे जिस से दैर-ओ-ज़ूद
मर्ग-ए-इस्राफ़ील पर आँसू बहाओ

वो मुजस्सम हमहमा था वो मुजस्सम ज़मज़मा
वो अज़ल से ता अबद फैली हुई ग़ैबी सदाओं का निशाँ

मर्ग-ए-इस्राफ़ील से
हल्क़ा दर हल्क़ा फ़रिश्ते नौहा गर

इब्न-ए-आदम ज़ुल्फ़-दर-ख़ाक-ओ-नज़ार
हज़रत-ए-यज़्दाँ की आँखें ग़म से तार

आसमानों की सफ़ीर आती नहीं
आलम-ए-लाहूत से कोई नफ़ीर आती नहीं

मर्ग-ए-इस्राफ़ील से
इस जहाँ पर बंद आवाज़ों का रिज़्क़

मुतरिबों का रिज़्क़ और साज़ों का रिज़्क़
अब मुग़न्नी किस तरह गाएगा और गाएगा क्या

सुनने वालों के दिलों के तार चुप
अब कोई रक़्क़ास क्या थिरकेगा लहराएगा क्या

बज़्म के फ़र्श-ओ-दर-ओ-दीवार चुप
अब ख़तीब-ए-शहर फ़रमाएगा क्या

मस्जिदों के आस्तान-ओ-गुम्बद-ओ-मीनार चुप
फ़िक्र का सय्याद अपना दाम फैलाएगा क्या

ताइरान-ए-मंज़िल-ओ-कोहसार चुप
मर्ग-ए-इस्राफ़ील है

गोश-ए-शनवा की लब-ए-गोया की मौत
चश्म-ए-बीना की दिल-ए-दाना की मौत

थी इसी के दम से दरवेशों की सारी हाव-हू
अहल-ए-दिल की अहल-ए-दिल से गुफ़्तुगू

अहल-ए-दिल जो आज गोशा-गीर-ओ-सुर्मा-दर-गुलू
अब तना ता-हू भी ग़ाएब और या-रब हा भी गुम

अब गली कूचों की हर आवा भी गुम
ये हमारा आख़िरी मलजा भी गुम

मर्ग-ए-इस्राफ़ील से
इस जहाँ का वक़्त जैसे सो गया पथरा गया

जैसे कोई सारी आवाज़ों को यकसर खा गया
ऐसी तन्हाई कि हुस्न-ए-ताम याद आता नहीं

ऐसा सन्नाटा कि अपना नाम याद आता नहीं
मर्ग-ए-इस्राफ़ील से

देखते रह जाएँगे दुनिया के आमिर भी
ज़बाँ-बंदी के ख़्वाब

जिस में मजबूरों की सरगोशी तो हो
उस ख़ुदावंदी के ख़्वाब