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इस्लाम-आबाद की एक शाम | शाही शायरी
islam-abaad ki ek sham

नज़्म

इस्लाम-आबाद की एक शाम

नसीम नाज़िश

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ज़मीं पे पत्ते बिखर रहे हैं
ख़ुनुक हुआ के उदास झोंके

गई रुतों की तलाश में हैं
ख़िज़ाँ-ज़दा बाग़-ए-बे-बहाराँ

ये कह रहा है कि मुझ को देखो
अजीब दिन हैं अजीब रातें

शिकस्ता-पा बे-निशाँ सवेरे
मिरा मुक़द्दर हैं बस अँधेरे

न अब परिंदे शजर पे गाते हैं गीत कोई
बस एक बे-नाम फ़ासला है

जो कोहना पेड़ों के दरमियाँ है
ये गिरते पत्तों की दास्ताँ है

बुलंद-ओ-बाला दरख़्त तन्हा
फ़सुर्दा जंगल के दरमियाँ अब लुटे खड़े हैं

कि सारे मंज़र सिसक रहे हैं
तमाम जंगल सुकूत-ए-ग़म के हिसार में है

हमारे हाथों से मिशअल-ए-ख़्वाब किस ने छीनी
हवा नहीं है तो कौन मुजरिम है, कुछ बताओ

ये शाम पतझड़ की दाइमी तो नहीं है 'नाज़िश'
बहार की सुब्ह आने वाली है ग़म न करना

उम्मीद का जो दिया जलाया है, उस की लौ को
हवाओं के डर से कम न करना

जो कुलफ़तें हैं जो वहशतें हैं
ये ज़िंदगी की हक़ीक़तें हैं