मैं भी उस हॉल में बैठा था
जहाँ पर्दे पे इक फ़िल्म के किरदार
ज़िंदा-जावेद नज़र आते थे
उन की हर बात बड़ी, सोच बड़ी, कर्म बड़े
उन का हर एक अमल
एक तमसील थी बस देखने वालों के लिए
मैं अदाकार था उस में
तुम अदाकारा थीं
अपने महबूब का जब हाथ पकड़ कर तुम ने
ज़िंदगी एक नज़र में भर के
उस के सीने पे बस इक आँसू से लिख कर दे दी
कितने सच्चे थे वो किरदार
जो पर्दे पर थे
कितने फ़र्ज़ी थे वो दो हाल में बैठे साए
नज़्म
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गुलज़ार