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इक उम्र की देर | शाही शायरी
ek umr ki der

नज़्म

इक उम्र की देर

समीना राजा

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सफ़्हा-ए-दिल से तिरा नाम मिटाने में मुझे देर लगी
पूरी इक उम्र की देर!

अश्क-ए-ग़म... क़तरा-ए-ख़ूँ... आब-ए-मसर्रत से
मिटा कर देखा

रंग-ए-दुनिया भी मिला... रंग-ए-तमन्ना भी लगा कर देखा
मकतब-ए-इश्क़ में जितने भी सबक़ याद किए

याद रहे
अर्सा-ए-ज़ीस्त में ख़्वाबों के ख़राबे थे बहुत

इन ख़राबों में
ख़यालों के नगर जितने भी आबाद किए

याद रहे!
गोशा-ए-रंज में... हंगामा-ए-दुनिया से परे

कौन इक हिज्र के शीशे में उतरता था
तिरे अक्स-ए-दिल-आराम के साथ

किस की उम्मीद के रस्ते पे कोई दायरा-ए-नूर न था
किस की मायूस निगाहों में बिखरते थे

तमन्ना के उजाले भी... अँधेरों की तरह
रोज़-ए-रौशन में भी हो जाती थी

किस दिल के मज़ाफ़ात में रात,
तू ने जाना ही नहीं

और तिरी ख़ुद-साख़्ता बे-ख़बरी को
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाने में मुझे देर लगी

आँसुओं से मिरा आईना-ए-ग़म धुँदलाया
एक सरदाबा-ए-दौराँ में जो पोशीदा-ओ-नादीदा रही थी

अब तक
इस तन-ए-ज़ार को... वो ज़िंदगी ही भूल गई

दिल से लिपटी हुई यक-रंग उदासी के सबब
रंग-ओ-रामिश में बसी ज़िंदा-दिली भूल गई

पर तिरी शक्ल भुलाने में मुझे देर लगी
पूरी इक उम्र की देर

उम्र...
जो लम्हा-ए-जाँ के सिवा कुछ भी न थी

उम्र... जो तेरी तमन्ना के सिवा कुछ भी न थी
बस वही उम्र बताने में... मुझे देर लगी!