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हुनूज़ याद है | शाही शायरी
hunuz yaad hai

नज़्म

हुनूज़ याद है

जौहर निज़ामी

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ज़हे-नशात ज़हे-हुस्न इज़्तिराब तिरा
नज़र की छेड़ से बजता था जब रबाब तिरा

न अब वो कैफ़ की रातें न वो बहार के दिन
कि महव-ए-नाज़ न था हुस्न-ए-ला-जवाब तिरा

दम-ए-विदाअ' वो रंगीं उदासियाँ तेरी
हुनूज़ याद है वो दीदा-ए-पुर-आब तिरा

वो झूम झूम के अब्र-ए-बहार का आना
वो बिजलियों की तड़प और वो इज़्तिराब तिरा

वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत वो चाँदनी रातें
वो सेहन-ए-बाग़ में हँसता हुआ शबाब तिरा

सँभल सँभल के मिरी सम्त वो निगाह तिरी
बचा बचा के नज़र मुझ से वो ख़िताब तिरा

मिरा हरीम-ए-तमन्ना था आसमाँ से बुलंद
इस आसमाँ पे चमकता था आफ़्ताब तिरा

अभी नज़र में है राज़-ओ-नियाज़ का आलम
वो मेरी इज्ज़-ए-मोहब्बत वो पेच-ओ-ताब तिरा

कभी सितम के लिए और कभी करम के लिए
निगाह-ए-शोख़ में डूबा हुआ हिजाब तिरा

मिरा सवाल ब-क़द्र-ए-हुजूम-ए-शौक़-ए-निहाँ
हया की आड़ में छुपता हुआ जवाब तिरा

हनूज़ याद है 'जौहर' को ऐ निगार-ए-जमील
वो इल्तिफ़ात के पर्दे में इज्तिनाब तिरा