मिरी मानिंद वो भी
ज़ुल्मत-ए-शब की मुसाफ़िर थी
अँधेरे रास्तों में
सुब्ह-ए-नौ के ख़्वाब
आँखों में सजाए
ब-नाम मंज़िल बे-नाम
उफ़्तां और ख़ेज़ाँ
क़दम अपने बढ़ाए
सहर का ख़्वाब
आँखों में सजाए
सफ़र जितना भी हम तय कर रहे थे
मसाफ़त थी कि बढ़ती जा रही थी
सुकूत-ए-सुब्ह की मायूसियों में
जो इक तन्हा रफ़ीक़-ए-रहरवी थी
वही शम-ए-तमन्ना बुझ रही थी
अज़ाब-ए-तीरगी नाज़िल हुआ
मुझ पर भी इस पर भी
कि ये हुक्म-ए-फ़लक था
सहर का ख़्वाब
दोनों का गुनाह मुश्तरक था
नज़्म
हम अंजाम
सरशार सिद्दीक़ी