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ग़ुरूब | शाही शायरी
ghurub

नज़्म

ग़ुरूब

राज नारायण राज़

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मैं अक्सर सोचा करता हूँ
काश मैं नट-खट बालक होता

और पटक देता इक पल में
ख़्वाहिश के ऊँचे गुम्बद से

जीवन का बे-रंग खिलौना
और कहीं जा कर सो जाता

लोग ठिठक जाते पल भर को
लम्बी आहें भरते कहते!

कैसा खिलौना! टूट गया है!
काम में फिर वो यूँ खो जाते

जैसे अंधी शब में धुएँ के
साँप फ़लक की जानिब लपकें