फूल बासी हो गए हैं
लम्स की शिद्दत से थक कर
हाथ झूटे हो गए हैं
इस जगह कल नहर थी और आज दरिया बह रहा है
बूढ़ा माँझी कह रहा है
ख़्वाहिशों के पेड़ पर लटके हुए
सायों को दीमक खा रही है
वक़्त की नाली में
सूरज चाँद तारे बह रहे हैं
बर्फ़ के जंगल से शोले उठ रहे हैं
ख़्वाब के जलते हुए चीते
मेरी आँखों में आ कर छुप गए हैं
घर की दीवारों पे
तन्हाई के बिच्छू रेंगते हैं
तिश्नगी के साँप
ख़ाली पानी के मटके में अपना मुँह छुपाए रो रहे हैं
रात के बहके हुए हाथी
उफ़ुक़ के बंद दरवाज़े पे दस्तक दे रहे हैं
हाथ छोड़ो
हाथ में काँटा चुभा है
तीन दिन से फाँस अंदर है
निकलती ही नहीं
नाम क्या है और कहाँ रहते हो तुम
जामा मस्जिद के क़रीब
कहते हैं मस्जिद के मीनारे भी थे
शहर में इक ज़लज़ला आया था जिस से गिर गए
गोश्त की सड़कों पे
काले ख़ून के सायों का सूरज चल रहा है
लज़्ज़तों की आग में तन जल रहा है
नज़्म
गोश्त की सड़कों पर
आदिल मंसूरी