मैं यहाँ नहीं था
मैं वहाँ नहीं था
दर्द-भरे आसमान में
चीख़ बन के
उभर रहा था
तंग घाटियों में
गूँज बन रहा था
समुंदरों पे
रेज़ा रेज़ा गिर रहा था
मैं यहाँ नहीं था
काले जंगलों के घोर अँधेरे में था
रफ़्ता रफ़्ता सब सियाही मिट गई
सारे जंगल
कट गए
हयूले घटते घटते
ग़ज़ाल-ए-शब बने
अँधेरे छट गए
अब्र के सियाह टुकड़े धुँद बन गए
चार-सू धुँद फैलती गई
इकाईयों को दूर दूर तक बहाती
चार-सू फैलती गई
धुँद में
ग़ज़ाल-ए-शब ने
रफ़्ता रफ़्ता आँख खोली
ज़बान से कुछ न बोली
हफ़्त-आसमानों से ले के
तहत-उस-सुरा तक
हज़ार-हा चराग़ जल उठे
रौशनी से जल गई
ग़ज़ाल-ए-शब की आँख नूर थी
ग़ज़ाल-ए-शब की आँख तूर थी
रफ़्ता रफ़्ता
रौशनी ने रौशनी को
अपनी जानिब खींचा
और मैं नूर में नहा गया
दूधिया सियह रंग
चहार सम्त छा गया
पानियों का ज़ोर
बढ़ने लगा
सैलाब आया
बाँध टूटे
रेत के घरौंदे
मिट्टी के गाँव
पत्थरों के शहर ढह गए
सुब्ह-ओ-शाम के किनारे
एक दूजे से गले मिल गए
अँधेरे जिस्म के खंडर की
सियाह ताक़ों में
दिलों के सौ चराग़ जल गए
रफ़्ता रफ़्ता
ग़ज़ाल-ए-शब ने आँख बंद की
और
सारा पानी खाई की तरफ़ चला गया
तेज़ पानियों में
मैं भी आ गया
अब फ़क़त
मैं रौशनी में बंद हूँ
और
अँधेरों को तरस रहा हूँ
मैं यहाँ नहीं हूँ
मैं
ग़ज़ाल-ए-शब के साथ हूँ
मैं
ग़ज़ाल-ए-शब के साथ हूँ
नज़्म
ग़ज़ाल-ए-शब के साथ
ख़लील मामून