इक जनाज़े को उठाए जा रहे थे चंद लोग 
तुम ने पूछा क्या हुआ क्यूँ जा रहे हो तुम मलूल 
तुम को लोगों ने बताया मर गया है एक शख़्स 
और यूँ मरते हैं नादाँ हूँ कि अर्बाब-ए-उक़ूल 
माँगने को चंद पैसे पेट भरने के लिए 
जा रहा था रास्ते से एक बे-बेचारा फ़क़ीर 
तुम ने देखा कोई उस का पूछने वाला नहीं 
था मरज़ में मुब्तला वो क़ैद-ए-निकहत का असीर 
चश्म-ए-हक़-बीं के लिए इबरत के नज़्ज़ारे मिले 
हस्ती-ए-इंसान पे जो ज़िंदगानी देख कर 
ऐश-ओ-इशरत के मज़े बे-कार से साबित हुए 
नक़्श-ए-आलम में नुमायाँ रंग-ए-फ़ानी देख कर 
राज छोड़ा बादशाहत की उम्मीदें तर्क कीं 
हो गया बेताब दिल रूह-ए-हक़ीक़त के लिए 
छोड़ दीं आसाइशें फिरते रहे तुम कू-ब-कू 
हस्ती-ए-मा'बूद की नज़्र-ए-अक़ीदत के लिए 
इज़्तिराबाना बसर की ज़िंदगानी मुद्दतों 
कुल्फ़तें रह के उठाईं मौसमों की शिद्दतें 
की रियाज़त रात-दिन दिल की तसल्ली के लिए 
जा-ब-जा फिरते रहे कीं मुर्शिदों की ख़िदमतें 
दूर बस्ती से गया के इक शजर की छाँव में 
तुम को बिल-आख़िर सुकून-ए-जावेदानी मिल गया 
दफ़अ'तन चमकी हक़ीक़त की तजल्ली सामने 
मेहनत-ए-पैहम से राज़-ए-ज़िंदगानी मिल गया 
अब भी पैरव हैं तुम्हारे तुम हो उन के देवता 
अब भी पुर उन की अक़ीदत से तुम्हारा जाम है 
ये नताएज हैं तुम्हारे बे-ग़रज़ आ'माल के 
तुम नहीं ज़िंदा मगर ज़िंदा तुम्हारा नाम है
        नज़्म
गौतम-बुद्ध
मैकश अकबराबादी

