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ग़म का आहंग है | शाही शायरी
gham ka aahang hai

नज़्म

ग़म का आहंग है

अख़्तर ज़ियाई

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ग़म का आहंग है
इस शाम की तंहाई में

दाम-ए-नैरंग है
आग़ाज़ का अंजाम लिए

कोई नग़्मा कोई ख़ुशबू नहीं
पुर्वाई में

दिल के आईने में
और रूह की गहराई में

एक ही अक्स कई नाम लिए
रक़्स में है

परतव-ए-हुस्न-ए-दिल-आराम लिए
फिर तिरे ध्यान में बैठा हूँ

तही जाम लिए
हसरत-ए-सई-तलब

बे-सर-ओ-सामान भी है
सख़्त हैजान भी है

जलते बुझते से दिए
ज़ीस्त की पहनाई में

वक़्त की झील में
यादों के कँवल

दूर तक धुँद के मल्बूस में
मानूस नुक़ूश

चाँदनी रात पवन
ताज-महल

तल्ख़ माज़ी की हिकायात हैं
और हाल के अफ़्साने भी

मुंतशिर ख़्वाब हैं
वीरान सनम-ख़ाने भी

हाँ मगर याद
तेरे वस्ल का पैमान भी है

एक मुद्दत से
तिरी दीद का अरमान भी है!!