रात सन्नाटा दर-ओ-बाम के होंटों पे सुकूत
राहें चुप-चाप हैं पत्थर के बुतों की मानिंद
रौशनी ताक़तों में अलसाई हुई बैठी है
नींद आँखों के दरीचों से लगी बैठी है
दिन के हंगामों की रौनक़ को बुझे देर हुई
चाँद को निकले सितारों को सजे देर हुई
अब किसी चश्म-ए-निगह-दार का ख़तरा भी नहीं
वक़्त के हाथ में अब संग-ए-मलामत भी नहीं
दिल जो मचले तो कोई टोकने वाला भी नहीं
जिस्म पिघले तो कोई देखने वाला भी नहीं
ऐ निगार-ए-दिल-ओ-जाँ शौक़ की बाहोँ में मचल
साया साया यूँही आग़ोश-ए-चमन-ज़ार में चल
दिन सितम-पेशा है राज़ों को उगल देता है
रात मा'सूम है राज़ों को छुपा लेती है
नज़्म
मुलाक़ात
ज़ुबैर रिज़वी