EN اردو
ए'तिराफ़ | शाही शायरी
etiraf

नज़्म

ए'तिराफ़

नईम जर्रार अहमद

;

तुम्हें है फ़ख़्र कि तुम हो मिरी शरीक-ए-हयात
मुझे ये दुख है

कि तुम मेरी हम-सफ़र ठहरी
मैं कम-नसीब जो क़िस्मत से अपनी लड़ न सका

तिरे सफ़र को बहुत ताबनाक कर न सका
तुम्हारी ख़्वाहिशों के ख़्वाब-नाक दामन को

नए ज़माने की रंगीनियों से भर न सका
मगर मैं आज भी

ये ए'तिराफ़ करता हूँ
तुम्ही थी मेरी मोहब्बत

तुम्ही हो जान-ए-हयात
मैं ख़ुश-नसीब कि तुम हो मेरी शरीक-ए-हयात