वो पैवस्ता निगाहें अपने सीने में उतर जाएँ
तरसती आत्मा को लम्हा-भर तो चैन आ जाए
बिखरती साअ'तें फिर एक नुक़्ता में सिमट जाएँ
मचलती चाँदी कोहसार के दामन पे लहराए
फ़लक के नीलगूँ सागर सरापा नूर बन जाएँ
मगर मैं ने सुना है चाँदनी जब यूँ उतरती है
तो नीले पानियों में गूँजती मौजें उलझती हैं
उजाले तीरगी से आ लिपटते हैं तो उजले पैरहन भी भीग जाते हैं
कहीं ऐसा न हो कोई उभरती मौज बल खाती दामन भिगो दे
और मैं महरूमियों की कश्तियों में साहिलों से दूर हो जाऊँ
ये ख़दशा बरमला लेकिन वो शर्मीली निगाहें राहत-ए-जाँ हैं
सिमटती हैं तो काले पानियों का ख़ौफ़ बढ़ता है
बिखरती हैं तो शो'ले से लपकते हैं
वो यख़-बस्ता निगाहें सर्द रातों की तरह
मेरे लहू की चाँदनी से ख़्वाब की सूरत गुरेज़ाँ
तह-ब-तह तारीकियों में रौशनी की इक करन जैसे
बिफरती लहर के गिर्दाब में बे-बादबाँ कश्ती
किसी का शाना-ए-सहरा में बहता ख़ूब-सूरत फूल
मुरझाने से पहले दिल-ए-गिरफ़्ता
ख़्वाहिशों में ज़र्द पत्तों सी उदासी
हसरतें तकमील की झंकार से आरी
मुक़द्दर ख़ून-आशामी

नज़्म
डूबती किरनें
शबनम मुनावरी