सुब्ह के जग-मग सूरज को
शाम के नारंजी बादल में
क्यूँ गहनाती हो
वो क्या अंदेशा है
जिस के बढ़ते क़दमों की धमक सुनी
और तुम ने अपने आँसू अपने अंदर गिरा लिए
अपनी रूह में नौहे जम्अ किए
और निस्याँ की डस्टबिन में फेंक दिए
वो कौन सा मुजरिम दर्द है
जिस को दिल के शब-ख़ानों में छुपाए
जिस के नादीदा शोलों से नज़र जलाए
बैठी हो
चोर ज़ेहन के
पिछले शेल्फ़ पे
तह करके मुझे मत रक्खो
मुझ से जान छुड़ानी हो तो
मुझे शुऊर के शीश-महल में ज़िंदा करे;
मुझे ज़िंदा करो
मिरे होने का इक़रार करो
मिरी ताक़त से इंकार करो
मुझे मारो;;
नज़्म
डस्टबिन
साक़ी फ़ारुक़ी