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दिल-आराम | शाही शायरी
dil-aram

नज़्म

दिल-आराम

शहज़ाद अहमद

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ज़माने के पाँव में ज़ंजीर डालो
कि ये छिपकिली की तरह रेंगता वक़्त

उमीदों के शह-पर को छूने लगा है
इसे रोक भी दो

कि ये फ़ील-पा अब हमारे सुबुक जिस्म को रौंद देगा
हमारे तख़य्युल के पर तोड़ देगा

ये सैल-ए-रवाँ आरज़ू के घरौंदे की बुनियाद को चाट लेगा
अगर दौड़ता वक़्त मेरी तरह

एक मरकज़ पे कुछ देर ठहरा रहे
नींद के देवता

आँख की पुतलियों के झरोकों से झांकेंगे
और आ बसेंगे

दिलों की उजड़ती हुई बस्तियों में
ये आँखें कि जिन का लहू

रत-जगे की लगाई हुई आग में जल रहा है
उन्हें सर्द हाथों के महके हुए

लम्स की जुस्तुजू है
इन्हें आरज़ू है

कि कोई दिला-राम
ख़्वाबों के गजरे सजा कर कहे

''ऐ मिरे सर-फिरे
मैं यहाँ हूँ यहाँ

किस लिए तू मुझे
वक़्त की बे-अमाँ वुसअतों में कहीं

ढूँढता फिर रहा है''