पक्की गंदुम के ख़ोशों में
उमडते दिन के डेरों में
अँधेरे की घनी शाख़ों
परिंदों के बसेरों में
थके बादल से गिरते नाम के अंदर
उतरती शाम के अंदर
दवाम-ए-वस्ल का इक ख़्वाब है
जो साँस लेता है
महकती सर-ज़मीनों में
मकानों में मकीनों में
तिरे मेरे इलाक़ों में
हमारे अहद-नामों में
लरज़ते बादबानों में
कहीं दूरी के गीतों में
कहीं क़ुर्बत की तानों में
अज़ल से ता-अबद फैली हुई
इस चादर-ए-अफ़्लाक के अंदर
रिदा-ए-ख़ाक के अंदर
हमारी नींद की गलियों में
अपनी धुन बजाता है
मकान-ए-आफ़ियत के बंद दरवाज़े गिराता है
नज़्म
दवाम-ए-वस्ल का ख़्वाब
अबरार अहमद