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दश्त-ए-अजनबियत में | शाही शायरी
dasht-e-ajnabiyat mein

नज़्म

दश्त-ए-अजनबियत में

करामत बुख़ारी

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दश्त-ए-अजनबियत में
आश्नाई की छाँव

साथ छोड़ जाए तो
हर तरफ़ बगूलों का

रक़्स घेर लेता है
दश्त-ए-अजनबियत में

आश्नाई की छाँव
साथ छोड़ जाए तो

यास घेर लेती है
आस के जज़ीरे को

और इस जज़ीरे को
कब किसी ने देखा है

दश्त-ए-अजनबियत में
आश्नाई की छाँव

साथ छोड़ जाए तो
बादलों के साए भी

सरगिराँ से रहते हैं
ज़िंदगी के चेहरे से

रंग रूठ जाते हैं
रंग रूठ जाना तो

मौत की अलामत है
दश्त-ए-अजनबियत में

आस के जज़ीरों पर
जब कभी उतरना तुम

आश्नाई की छाँव
साथ छोड़ जाए तो

आस के जज़ीरों को
यास में समो लेना

और दिल के दामन को
आँसुओं से धो लेना