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दश्त-ए-अदम का सन्नाटा | शाही शायरी
dasht-e-adam ka sannaTa

नज़्म

दश्त-ए-अदम का सन्नाटा

अकबर हैदराबादी

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क्या क्या मंज़र देख रही हैं आँखें मेरी
कब से उन उजले शीशों पर

साए लर्ज़ां हैं
कुछ धुँदलाए मंज़र अरमानों की जादू-नगरी से

सीने की तारीकी से
जुगनू की मानिंद झलकते रहते हैं रंग बदलते रहते हैं

बंद अगर हो जाएँ ये आँखें
सारे मंज़र

सारे पस-मंज़र
बे-अल्फ़ाज़ बयाँ की सूरत

इक कोरे काग़ज़ में ढल कर
(यकसर रूप बदल कर)

ठहरी ठहरी आँखों की तन्हाई में खो जाएँगे
दश्त-ए-अदम का सन्नाटा हो जाएँगे