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बुलावा | शाही शायरी
bulawa

नज़्म

बुलावा

ज़ेहरा निगाह

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चलो उस कोह पर अब हम भी चढ़ जाएँ
जहाँ पर जा के फिर कोई भी वापस नहीं आता

सुना है इक निदा-ए-अजनबी बाहोँ को फैलाए
जो आए उस का इस्तिक़बाल करती है

उसे तारीकियों में ले के आख़िर डूब जाती है
यही वो रास्ता है जिस जगह साया नहीं जाता

जहाँ पर जा के फिर कोई कभी वापस नहीं आता
जो सच पूछो तो हम तुम ज़िंदगी भर हारते आए

हमेशा बे-यक़ीनी के ख़तर से काँपते आए
हमेशा ख़ौफ़ के पैराहनों से अपने पैकर ढाँपते आए

हमेशा दूसरों के साए में इक दूसरे को चाहते आए
बुरा क्या है अगर उस कोह के दामन में छुप जाएँ

जहाँ पर जा के फिर कोई कभी वापस नहीं आता
कहाँ तक अपने बोसीदा बदन महफ़ूज़ रक्खेंगे

किसी के नाख़ुनों ही का मुक़द्दर जाग लेने दो
कहाँ तक साँस की डोरी से रिश्ते झूट के बाँधें

किसी के पंजा-ए-बे-दर्द ही से टूट जाने दो
फिर इस के ब'अद तो बस इक सुकूत-ए-मुस्तक़िल होगा

न कोई सुर्ख़-रू होगा, न कोई मुन्फ़इल होगा