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ब्लैक-आउट | शाही शायरी
black-out

नज़्म

ब्लैक-आउट

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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जब से बे-नूर हुई हैं शमएँ
ख़ाक में ढूँढता फिरता हूँ न जाने किस जा

खो गई हैं मिरी दोनों आँखें
तुम जो वाक़िफ़ हो बताओ कोई पहचान मिरी

इस तरह है कि हर इक रग में उतर आया है
मौज-दर-मौज किसी ज़हर का क़ातिल दरिया

तेरा अरमान, तिरी याद लिए जान मिरी
जाने किस मौज में ग़लताँ है कहाँ दिल मेरा

एक पल ठहरो कि उस पार किसी दुनिया से
बर्क़ आए मिरी जानिब यद-ए-बैज़ा ले कर

और मिरी आँखों के गुम-गश्ता गुहर
जाम-ए-ज़ुल्मत से सियह-मस्त

नई आँखों के शब-ताब गुहर
लौटा दे

एक पल ठहरो कि दरिया का कहीं पाट लगे
और नया दिल मेरा

ज़हर में धुल के, फ़ना हो के
किसी घाट लगे

फिर पए-नज़्र नए दीदा ओ दिल ले के चलूँ
हुस्न की मदह करूँ शौक़ का मज़मून लिक्खूँ