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भोली माँ | शाही शायरी
bholi man

नज़्म

भोली माँ

मंसूरा अहमद

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अनजाने में शायद मुझ से ही
कुछ ऐसी भूल हुई है

दूध बिलोती माँ की आँखें
तारा तारा बिखर रही हैं

माँ कहती है धीरे बोलो
छोटे छोटे क़दम उठाओ

आवाज़ों की गूँज धमक से
क़दमों की बोझल दस्तक से

दिल में आँधी सी चलती है
दिन चानन में कैसी जंगल रात उतरी है

घर की चौखट ऊँघ रही है
अँगनाई की धूप भी खोई खोई सी है

माँ को शायद ये उलझन है
इस ने अपनी माँ से

जितने दुख विर्से में पाए थे
चुपके चुपके जल जाने के जितने क़ौल निभाए थे

मैं इन सब से क्यूँ बाग़ी हूँ
कितनी भोली सीधी माँ है

आग के विर्से से इंकार पे रूठ गई है