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बे-यक़ीनी | शाही शायरी
be-yaqini

नज़्म

बे-यक़ीनी

जमीलुद्दीन आली

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यूँ तो अपने ही अंदर का सच और वो सच है अरे ता-अबद तुझ को काफ़ी है
कल की जानिब से इस बे-यक़ीनी के सारे अवारिज़ का शाफ़ी है

तेरी सद-सम्त और बे-ग़रज़ छोटी छोटी कई ख़िदमतों का ये पुश्तारा है
बे-चारा

और उस के साथ एक दर्द-ए-नदामत ही वजह-ए-मुआफ़ी है
इस तरह पेश-बीनी रिवायात और मस्लहत के मुनाफ़ी है

फिर भी
तुझे हाल का कोई यक-तरफ़ा साहिब-ए-मक़ाल आज जो भी कहे

याद ये भी रहे
कितने हालों की तारीख़ ने उन को क्या कर दिया

जिस का जितना था हक़ रफ़्ता रफ़्ता अदा कर दिया
जब तिरा हाल माज़ी बनेगा तो गो अगले पिछलों पे हैरत करेंगे

तेरी ख़ुद-ना-तमामी न वाज़ेह हुई तो हिकायत शिकायत करेंगे
और कुछ लग़्ज़िशों की नदामत करेंगे

मगर तेरे सच और तुझ से बहुत ही मोहब्बत करेंगे