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बे-निशाँ | शाही शायरी
be-nishan

नज़्म

बे-निशाँ

मुग़नी तबस्सुम

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बात यूँ ख़त्म हुई
दर्द यूँ गया जैसे कि साहिल ही न था

सारे अल्ताफ़-ओ-करम भूल गए
जौर-फ़रामोश हुए

रात यूँ बीत गई जैसे कि निकला ही न था
मतला-ए-शौक़ पे वो माह-ए-तमाम

अश्क यूँ सूख गए जैसे कि दामन मेरा
उस का आँचल था

वो पैमाना-ए-नाज़
जाने गर्दिश में है कि टूट गया

मैं ज़माने के किनारे यूँ खड़ा हूँ तन्हा
जैसे एक जस्त लगा ही दूँगा

और कल बाद-ए-सहर
यूँ मिटा देगी हर इक नक़्श-ए-क़दम

जैसे इस राह से पहले कोई गुज़रा ही न था