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बे-ख़्वाब मसाफ़त | शाही शायरी
be-KHwab masafat

नज़्म

बे-ख़्वाब मसाफ़त

ख़ालिद मोईन

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एक दो पल तो ज़रा और रुको
ऐसी जल्दी भी भला क्या है चले जाना तुम

शाम महकी है अभी और न पलकों पे सितारे जागे
हम सर-ए-राह अचानक ही सही

मुद्दतों बा'द मिले हैं तो न मिलने की शिकायत कैसी
फ़ुर्सतें किस को मयस्सर हैं यहाँ

आओ दो-चार क़दम और ज़रा साथ चलें
शहर-ए-अफ़्सुर्दा के माथे पे बुझी शाम की राख

ज़र्द पत्तों में सिमटती देखें
फिर उसी ख़ाक-ब-दामाँ पल से

अपने गुज़रे हुए कल की ख़ुश-बू
लम्हा-ए-हाल में शामिल कर के

अपनी बे-ख़्वाब मसाफ़त का इज़ाला कर लें
अपने होने का यक़ीं

और न होने का तमाशा कर लें
आज की शाम सितारा कर लें