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बे-ख़बरी | शाही शायरी
be-KHabari

नज़्म

बे-ख़बरी

जमीलुर्रहमान

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ख़ौफ़ अभी जुड़ा न था सिलसिला-ए-कलाम से
हर्फ़ अभी बुझे न थे दहशत-ए-कम-ख़िराम से

संग-ए-मलाल के लिए दिल आस्ताँ हुआ न था
इक़्लीम-ए-ख़्वाब में कहीं कोई ज़ियाँ हुआ न था

निकहत-ए-अब्र-ओ-बाद की मस्ती में डोलते थे घर
साफ़ दिखाई देते थे

उस की गली के सब शजर
गर्द मिसाल-ए-दस्तकें दर पे अभी जमी न थीं

रंग-ए-फ़िराक़-ओ-वस्ल की परतें अभी खुली न थीं
ऐसे में थी किसे ख़बर

जब साअत-ए-माहताब हो
यूँ भी तो है कि और ही नक़्शा-ए-ख़ाक-ओ-आब हो