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बे-चेहरगी | शाही शायरी
be-chehragi

नज़्म

बे-चेहरगी

परवेज़ शाहिदी

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हज़ार पोस्त उस्तुख़्वाँ
हज़ार लब फ़सुर्दगी

हज़ार पर्दा तिश्नगी
हज़ार शाख़ बे-दिली

हज़ार इश्वा ख़ुद-सरी
हज़ार ग़म्ज़ा आजिज़ी

हज़ार पेच आगही
हज़ार उक़्दा अब्लही

हज़ार लहजा ख़ामुशी
हज़ार मर्ग ज़िंदगी

ग़ुरूर-ए-बरतरी के साथ इख़्तिलाज-ए-कम-तरी
ये रेज़ा रेज़ा आदमी

ये पारा पारा आदमी
हज़ार चेहरा आदमी

मआशियात-ए-हिर्स का उभरता ख़लफ़शार है
मुजस्सम इंतिशार है

निज़ाम-बे-महार का अज़ीम शाहकार है
हज़ार चेहरा आदमी

ख़ुद अपना चेहरा ढूँढता
रवाँ-दवाँ

अभी यहाँ
अभी वहाँ

न कोई सम्त ज़ेहन में
न कोई राह सामने

फ़क़त फ़रेब-कारी-ए-अना की गर्द ओढ़ कर
कभी है दौड़ता इधर

कभी है भागता उधर
हो कौन उस का हम-सफ़र

ख़ुद उस के चेहरों के हुजूम में जो चेहरा खो गया
दोबारा वो मिलेगा क्या

तआवुन आईने का भी फ़रेब ही फ़रेब है
नज़र लगाए ग़ोता क्या कि आईना अथाह है

ख़ुद अपने चेहरों का हुजूम वर्ता-ए-निगाह है
न कोई नक़्श मुनफ़रिद

न कोई अक्स-ए-मो'तबर
हज़ार चेहरा आदमी

हज़ार चेहरगी लिए
भटक रहा है बे-इरादा सिर्फ़ इसी तलाश में

कि उस को
चेहरा चाहिए

ख़ुद अपना चेहरा चाहिए
वो असली चेहरा चाहिए

बिछड़ के जो सिसक रहा है चेहरों ही की भीड़ में