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बाज़याफ़्त | शाही शायरी
bazyaft

नज़्म

बाज़याफ़्त

महमूद अयाज़

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गुज़रे हुए माह ओ साल के ग़म
तन्हाई शब में जाग उट्ठे हैं

उम्र-ए-रफ़्ता की जुस्तुजू में
अश्कों के चराग़ जल रहे हैं

आसाइश-ए-ज़िंदगी की हसरत
माज़ी का नक़्श बन चुकी है

हालात की ना-गुज़ीर तल्ख़ी
एक एक नफ़स में बस गई है

नाकामी-ए-आरज़ू को दिल ने
तस्लीम ओ रज़ा के नाम बख़्शे

मिलने की ख़ुशी बिछड़ने का ग़म
क्या क्या थे फ़रेब-ए-ज़िंदगी के

इक उम्र में अब समझ सके हैं
ख़ुशियों का फ़ुसूँ गुरेज़ पा है

अब तर्क दुआ की मंज़िलें हैं
दामान-ए-तलब सिमट चुका है

नाकामी-ए-शौक़ मिटते मिटते
जीने का शुऊर दे गई है

ये ग़म है नवाए शब का हासिल
ये दर्द मता-ए-ज़िंदगी है

उजड़ी हुई हर रविश चमन की
देती है सुराग़ रंग ओ बू का

वीरान हैं ज़िंदगी की राहें
रौशन है चराग़ आरज़ू का