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बाज़-गश्त | शाही शायरी
baz-gasht

नज़्म

बाज़-गश्त

महमूद अयाज़

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ख़ामुशी रेंगती है राहों पर
एक अफ़्सूँ-ब-दोश ख़्वाब लिए

रात रुक रुक के साँस लेती है
अपनी ज़ुल्मत का बोझ उठाए हुए

मुज़्महिल चाँद की शुआ'ओं में
बीते लम्हों की याद रक़्साँ है

जाने किन माह-ओ-साल का साया
वक़्त की आहटों पे लर्ज़ां है

एक याद इक तसव्वुर-ए-रफ़्ता
सीना-ए-माह से उभरता है

है ये सरशारी-ए-हयात का रंग
दर्द किन मंज़िलों से गुज़रा है