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बादा-ए-नीम-रस | शाही शायरी
baada-e-nim-ras

नज़्म

बादा-ए-नीम-रस

सैफ़ुद्दीन सैफ़

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किस क़यामत का तबस्सुम है तिरे होंटों पर
इस्तिआरों में भटकते हैं ख़यालात मिरे

मैं कि हर साँस को इक शे'र बना सकता हूँ
नज़्म होने को परेशान हैं जज़्बात मिरे

आँख जमती नहीं लहराते हुए क़दमों पर
किसी नग़्मे का तलातुम है कि रफ़्तार तिरी

रक़्स अंगड़ाइयाँ लेता है तिरी बाँहों में
हैरत-आसार है क्यूँ चश्म-ए-फ़ुसूँ-बार तिरी

बे-ख़याली में नशेबों से गुज़रने वाली
फ़र्श हमवार से उलझेंगे क़दम रह रह कर

लब थिरक जाएँगे अल्फ़ाज़ की मौसीक़ी पर
अपनी रफ़्तार से उलझेंगे क़दम रह रह कर

देखते देखते भरपूर जवानी की हया
तेरी बेबाक निगाहों में समा जाएगी

पर्दा-ए-चश्म से निकलेंगी झिजक कर नज़रें
ज़ुल्फ़ डरती हुई रुख़्सार पे लहराएगी

जिस्म हर गाम पे लग़्ज़िश का इशारा पा कर
जाम-ए-लबरेज़ की मानिंद छलक जाएगा

रेशमी रेशमी ज़ुल्फ़ों से फिसलता आँचल
कभी शानों से कभी सर से ढलक जाएगा