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अंदर का चमकीला हीरा | शाही शायरी
andar ka chamkila hira

नज़्म

अंदर का चमकीला हीरा

कृष्ण मोहन

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कितने दिनों तक
राजा के दरबार में इक साधू आता था

जो उस को रोज़ इक फल दे जाता था
राजा बे-हिस बे-परवा सा

इस फल को मख़्ज़न के इक कोने में फेंक दिया करता था
इक दिन जब वो साधू आया

राजा के बंदर ने उस से वो फल छीना
और जो खाया तो उस में से

एक चमकता हीरा निकला
राजा हैराँ साधू ग़ाएब

राजा फिर मख़्ज़न के उस कोने में पहुँचा
और वहाँ देखा हीरों का ढेर लगा था

और फल के छिलके बिखरे थे
कौन था वो साधू और आज कहाँ ग़ाएब है

वो फल क्या है जो हर रोज़ मिले हम को लेकिन हम उस का
अंतर देख न पाएँ उस की क़द्र न जानें

ज़ाहिर के साधारण रूप में अंदर का चमकीला हीरा
जिस ने भी पहचाना अपने आप को जाना

बाहर से मामूली लगने वाले फल को फेंक दिया तो
उस के अंदर का हीरा ओझल ही रहेगा