मगर ये आरज़ू कब थी
कि हम अफ़्लाक के फ़रमान की सूली पे जा लटकें
तो आख़िर किस लिए वक़्त-ओ-मकाँ की घाटियाँ उतरें
बना कर मरक़दों को दर-ए-अदम के आसमाँ की ख़ाक छानीं
और फिर जीवन के मौसम को असीरी का कफ़न ओढें
मगर इन सब सवालों के जवाबों से बहुत पहले
नया दिन सूरजों पर बैठ कर
खिड़की के रस्ते ख़्वाब-ज़ारों में उतरता है
हम अपने टुथ-ब्रश मुँह में लिए और तोलिए को हाथ में थामे
फिर इक जब्र-ए-मुसलसल के लिए तय्यार होते हैं
घड़ी के साज़ पर कैलेंडरों के सफ़्हे कितने हैं
नज़्म
अफ़्लाक गूँगे हैं
रविश नदीम

