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अड़े कबूतर उड़े ख़याल | शाही शायरी
aDe kabutar uDe KHayal

नज़्म

अड़े कबूतर उड़े ख़याल

मुनव्वर राना

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इक बोसीदा मस्जिद में
दीवारों मेहराबों पर

और कभी छत की जानिब
मेरी आँखें घूम रही हैं

जाने किस को ढूँड रही हैं
मेरी आँखें रुक जाती हैं

लोहे के उस ख़ाली हुक पर
जो ख़ाली ख़ाली नज़रों से

हर इक चेहरा देख रहा है
इक ऐसे इंसान का शायद

जो इक पंखा ले आएगा
लाएगा और दूर करेगा

मस्जिद की बे-सामानी को
ख़ाली हुक की वीरानी पर

मैं ने जब उस हुक को देखा
मेरी नन्ही फूल सी बेटी

मेरी आँखों में दौड़ आई
भोली माँ ने उस की

अपनी प्यारी राज-दुलारी बेटी के
दोनों कानों को

अपने हाथों से छेद दिया है
फूलों जैसे कानों में फिर

नीम के तिनके डाल दिए हैं
उम्मीदों आसों के सहारे

दिल ही दिल में सोच रही है
जब हम को अल्लाह हमारा

थोड़ा सा भी पैसा देगा
बेटी के कानों में उस दिन

बालियाँ होंगी बुंदे होंगे
मैं ने अनथक मेहनत कर के

पंखा एक ख़रीद लिया है
मस्जिद के इस ख़ाली हुक को

मैं ने पंखा सौंप दिया है
हुक में पंखा देख के मुझ को

होता है महसूस कि जैसे
मेरी बेटी बालियाँ पहने

घर की छत पर घूम रही है