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अभी कुछ काम बाक़ी हैं | शाही शायरी
abhi kuchh kaam baqi hain

नज़्म

अभी कुछ काम बाक़ी हैं

नजीब अहमद

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अभी ठहरो
अभी कुछ काम बाक़ी हैं

ज़रा ये काम निमटा लें तो चलते हैं
अभी तो ना-मुकम्मल नज़्म का इक आख़िरी मिस्रा किताब-ए-हिज्र में तहरीर करना है

ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-ग़म अस्लाफ़ में तक़्सीम हो जाएँ तो सर से बोझ उतरे
क़र्ज़ का जामा पहन कर इक नए रस्ते पे जाना कब मुनासिब है

अभी ठहरो
अभी हम को जज़ीरे में हवा के सब्ज़ झोंकों से शजर की बात करना है

सवेरों की इमामत करने वाली ज़ौ निगाहों में पिरोने तक ठहर जाओ
अंधेरों में किसी लौ के बिना लम्बा सफ़र आग़ाज़ करना कब मुनासिब है

अभी ठहरो
हुजूम-ए-दिल-बराँ आदाब-ए-गिर्या से नहीं वाक़िफ़

दर-ओ-दीवार-ए-हसरत में ज़रा सी भीड़ लग जाए तो चलते हैं
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कि यूँ चुप-चाप मय्यत की तरह घर से निकलना कब मुनासिब है
ज़रा ठहरो

अभी कुछ काम बाक़ी हैं
ज़रा ये काम निमटा लें तो चलते हैं