कभी ख़ुश्क मौसम में पुर्वा जो चलती
तो बंजर पहाड़ों घने गर्द-आलूद शहरों से कतरा के
हम तक पहुँचती
हमें तुंद यादों के गिर्दाब मैं
डूबते और उभरते हुए देख कर हम से कहती
मैं उन सब के जिस्मों से मस हो के आई हूँ
उन के पसीने की ख़ुश्बू को
अपने लिबादे में भर कर
हथेली पे रख कर मैं लाई हूँ
कभी सुर्ख़ सूरज निकलता
तो हम उस से कहते
तुम्हारी दहकती हुई आँख का राज़ क्या है
वो कहता
मैं इन सब की आँखों के ग़ुर्फों से
ये सारी उजली तमाज़त चुराता रहा हूँ
मैं दरयूज़ा-गर उन चराग़ों से ख़ुद को जलाता रहा हूँ
उन्हें हम ने ढूँडा
कभी सब्ज़ शबनम के छींटों में तारों की रोती हुई अंजुमन मैं
कभी सुब्ह की क़त्ल-गाह शब के घायल बदन में
उन्हें हम ने आवाज़ दी कू-ब-कू
ग़म में डूबी हुई बस्तियों से अटे ख़ाक-दान-ए-वतन में
मगर वो नहीं थे कहीं भी नहीं थे
कहीं उन के क़दमों की हल्की सी आवाज़ तक भी नहीं थी
फिर इक रोज़ धरती का मौसम जो बदला
तो बादल ने शानों से हम को हिला कर जगाया
कहा उन के आने का पैग़ाम आया
चहकते परिंदों ने शाख़ों से उड़ कर
हवाओं में इक दायरा सा बनाया
कहा उन के आने का पैग़ाम आया
धनक सात रंगों में लिपटी हुई
इक कमाँ बन के ज़ाहिर हुई
हम से कहने लगी अपनी आँखों से देखा है मैं ने उन्हें
तेज़ क़दमों से आते हुए
शाम हँसने लगी
उस की आँखों में ख़ुशियों के आँसू थे
आरिज़ पे शबनम
नगीनों की सूरत चमकने लगी थी
नज़्म
आमद
वज़ीर आग़ा