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आलमों को बन बास देने वाले | शाही शायरी
aalamon ko ban bas dene wale

नज़्म

आलमों को बन बास देने वाले

अबु बक्र अब्बाद

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सूरज से साए की तवक़्क़ो' बादल से सुनहरी धूप की
काँटों से महकते फूल की ख़ुश्बू सहरा से हरियाली की

कैसे भूले आप हैं साहब कैसी तवक़्क़ो' रखते हैं
कीचड़ में जब आप चलेंगे पाँव तो गंदे होंगे ही

झूटों की सोहबत में रह कर सच कैसे कह पाएँगे
मरे हुए इंसाँ के लहम से क्यूँ रग़बत रखते हैं आप

अब भी थोड़ा वक़्त बहुत है क़ल्ब-ए-माहियत कर लें
अहल-ए-हवस के सामने झुक के

बौनों की सना में बे-ख़ुद हैं
अपने जी का सौदा कर के लोगों की मलामत सहते हैं

बहुत हुआ बस बंद करें अब अपनी ज़मीर-फ़रोशी को
दुनिया वाले सोचते होंगे आलम क्यूँ ऐसे हैं अब

लेकिन उन को कौन बताए
आप ने ज़र और जिस्म की ख़ातिर

जाहिल को तौक़ीर है बख़्शी आलिम को बन-बास दिया है
और आलिम तुझ किज़्ब-ए-सिफ़त को महव-ए-हैरत ताक रहा है

इल्म जो शहर-ए-इल्म के बाहर अब भी गिर्या करता है
अपनी और तेरी हालत पर ग़म के आँसू रोता है

काश कि हो तौफ़ीक़ ज़रा सी
थोड़ा पशेमाँ हो लें आप

तौबा की मंज़िल से पहले
अपनी सूरत देखें आप