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आख़िरी तंबीह | शाही शायरी
aaKHiri tambih

नज़्म

आख़िरी तंबीह

उरूज ज़ेहरा ज़ैदी

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मुझे मालूम था तुम रस्ता बदलोगे
तभी आँखों में ख़्वाबों को ज़रा सी भी जगह न दी

मगर ये दिल
मगर ये दिल बहुत कम्बख़्त है सुनता नहीं मेरी

सो अब जो तुम ने अपनी राह बदली है
तो अब मासूम बन के रोता-धोता है

मुझे कहता है फिर आग़ोश में ले लो
मुझे सीने में फिर रख लो

मैं अब हो बात मानूँगा
मगर वो क्या है नाँ उस पर तुम्हारा नाम कंदा है

तुम्हारा नाम अब वहशत से बढ़ कर कुछ नहीं देता
उसी की चीज़ होती है कि जिस का नाम लिक्खा हो

तुम्हारी सारी चीज़ें तो तुम्हें लौटा चुकी हूँ मैं
सुनो ये दिल भी ले जाओ

और अपनी चीज़ें अब सँभाल कर रखना
दोबारा से तुम्हारे नाम का कुछ भी

कभी भी और कहीं से भी
किसी तरह भी मेरे पास न आए

मैं सय्यद हूँ
मैं जो इक बार दे दूँ फिर उसे वापस नहीं लेती