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आख़िरी रात | शाही शायरी
aaKHiri raat

नज़्म

आख़िरी रात

महमूद अयाज़

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क़रीब-ए-आख़िर-ए-शब है मिरे गले लग जाओ
विदा-ए-शाम-ए-तरब है मिरे गले लग जाओ

अब एक उम्र जुदाई के फ़ासले होंगे
बस एक वक़्फ़ा-ए-शब है मिरे गले लग जाओ

गिला-गुज़ार-ए-ज़माना हूँ तुम ख़फ़ा क्यूँ हो
गिला तो हुस्न-ए-तलब है मिरे गले लग जाओ

तमाम उम्र जो रह रह के याद आएगी
यही वो साअत-ए-शब है मिरे गले लग जाओ

दयार-ए-ग़ैर में तुम को कहाँ मैं ढूँडूँगा
ये ख़त्म-ए-अहद-ए-तरब है मिरे गले लग जाओ