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आख़िरी क़ाफ़िला | शाही शायरी
aaKHiri qafila

नज़्म

आख़िरी क़ाफ़िला

शाहीन ग़ाज़ीपुरी

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न जाने
सरगोशियों में कितनी कहानियाँ अन-कही हैं अब तक

बरहना दीवार पर टँगे पुर-कशिश कैलेंडर में
दाएरे का निशान

उम्र-ए-गुरेज़-पा को दवाम के ख़्वाब दे गया है
जिस में सुलगते सय्यारे

गेसुओं के घने ख़ुनुक साए ढूँडते हैं
गुलाब-साँसों से

जैसे
शादाबियों की तख़्लीक़ हो रही है

वो झुक के फूलों में अपने भीगे बदन की ख़ुशबू को बाँटती है
चमन से जाती बहार

इक टोकरी में महफ़ूज़ हो गई है