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आख़िरी हर्बा | शाही शायरी
aaKHiri harba

नज़्म

आख़िरी हर्बा

जावेद शाहीन

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इन दिनों मेरे अंदर घमसान का रन पड़ रहा है
अपने ख़िलाफ़ अपना ही दिफ़ाअ कर रहा हूँ

जंग में हर हर्बा जाएज़ होता है
मैं ने एक बहादुर की मानिंद

ओछा हथियार इस्तिमाल न करने का फ़ैसला किया था
लेकिन जूँही मेरे गिर्द हिसार तंग होने लगता है

मेरी ज़िरह-बक्तर के हल्क़े टूटने लगते हैं
और बचाओ के हर रास्ते पर

टिकटिकी दिखाई देती है
तो मैं कोई न कोई ओछा हथियार

इस्तिमाल करने पर मजबूर हो जाता हूँ
किसी सरकश ख़याल के पेट में

चुपके से ख़ंजर उतार देता हूँ
किसी गुस्ताख़ जज़्बे को

मुफ़ाहमत के बहाने बुला कर
दीवार में चुन देता हूँ

मैं जानता हूँ
मेरे दिफ़ाअ में

शिगाफ़ पड़ चुके हैं
लेकिन मेरा इरादा

आख़िर तक डटे रहने का है
फिर तमाम राहें मसदूद पा कर

आख़िरी हर्बा इस्तिमाल करूँगा
अपनी मौत का एलान इस तरह करूँगा

जैसे मैं नहीं
मेरा दुश्मन मरा हो