बहुत दिन रह लिया कू-ए-नदामत में
हज़ीमत के बहुत से वार हम ने सह लिए
तिरा ये शहर शहर-ए-जाँ नहीं है
तिरे इस शहर में अब और क्या रहना
हमारे ख़्वाब
तेरे ख़ार-ओ-ख़स में थे
हमारे लफ़्ज़
तेरी पेश-ओ-पस में थे
कि हम हर साँस
तेरी दस्तरस में थे
तिरे उजले दिनों से
हम को क्या हिस्सा मिलेगा
गदा के हाथ में
टूटा हुआ कासा रहेगा
हमेशा के लिए शायद
यही क़िस्सा रहेगा
अब इस धोके में क्या रहना
बहुत दिन रह लिया कू-ए-नदामत में
नज़्म
आख़िरी दिन से पहले
अबरार अहमद