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आइना रौशन ख़त-ए-ज़ंगार से | शाही शायरी
aaina raushan KHat-e-zangar se

नज़्म

आइना रौशन ख़त-ए-ज़ंगार से

अख़्तर हुसैन जाफ़री

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चाँद के साए में लौ देता बदन
टिमटिमाते होंट

मीठी रौशनी
घोलना प्यालों में अमृत घोलना

खोलना इल्ज़ाम सारे खोलना जो बदन मिलते समय खुलते नहीं
शम्अ' जलने

दोस्ती पर सच उतरने की घड़ी आने को है
दिल में जितना खोट था सब पढ़ लिया

उस आँख ने
आँख ने अपनी क़सम तोड़ी नहीं

दस्तख़त मेरे भी होते इख़्तिताम-ए-सत्र पर
उस ने काग़ज़ पर जगह छोड़ी नहीं

आइना रौशन ख़त-ए-ज़ंगार से
दर्द-ए-रुसवा से रिहाई की सज़ा थोड़ी नहीं