EN اردو
आदत | शाही शायरी
aadat

नज़्म

आदत

कैफ़ी आज़मी

;

मुद्दतों मैं इक अंधे कुएँ में असीर
सर पटकता रहा गिड़गिड़ाता रहा

रौशनी चाहिए، चाँदनी चाहिए، ज़िंदगी चाहिए
रौशनी प्यार की, चाँदनी यार की, ज़िंदगी दार की

अपनी आवाज़ सुनता रहा रात दिन
धीरे धीरे यक़ीं दिल को आता रहा

सूने संसार में
बेवफ़ा यार में

दामन-ए-दार में
रौशनी भी नहीं

चाँदनी भी नहीं
ज़िंदगी भी नहीं

ज़िंदगी एक रात
वाहिमा काएनात

आदमी बे-बिसात
लोग कोताह-क़द

शहर शहर-ए-हसद
गाँव इन से भी बद

इन अंधेरों ने जब पीस डाला मुझे
फिर अचानक कुएँ ने उछाला मुझे

अपने सीने से बाहर निकाला मुझे
सैकड़ों मिस्र थे सामने

सैकड़ों उस के बाज़ार थे
एक बूढ़ी ज़ुलेख़ा नहीं

जाने कितने ख़रीदार थे
बढ़ता जाता था यूसुफ़ का मोल

लोग बिकने को तय्यार थे
खुल गए मह-जबीनों के सर

रेशमी चादरें हट गईं
पलकें झपकीं न नज़रें झुकीं

मरमरीं उँगलियाँ कट गईं
हाथ दामन तक आया कोई

धज्जियाँ दूर तक बट गईं
मैं ने डर के लगा दी कुएँ में छलांग

सर पटकने लगा फिर इसी कर्ब से
फिर इसी दर्द से गिड़गिड़ाने लगा

रौशनी चाहिए चाँदनी चाहिए ज़िंदगी चाहिए