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ज़ेहन | शाही शायरी
zehn

नज़्म

ज़ेहन

त्रिपुरारि

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ये दा'वा है
जहाँ में चंद लोगों का

कि हम ने ज़िंदगी को जीत रक्खा है
हमारे पास या'नी एटमी हथियार हैं इतने

हमारा दोस्त नन्हा एलीयन भी है
करोड़ों साल की तारीख़ को अब जानते हैं हम

कि हम ने मौत पर अब फ़त्ह पा ली है
प्लैनेट मार्स पर पानी भी ढूँडा है

ये सब कहते हुए अक्सर
वो शायद भूल जाते हैं

अभी इक चीज़ बाक़ी है कि जो अनमैप्ड है अब तक
जिसे हम ज़ेहन कहते हैं

हमारे साइंस-दानों ने भी माना है
कि अब तक कुछ ही हिस्सा ज़ेहन का

हम जान पाए हैं
बहुत कुछ है जिसे अब भी हमें डीकोड करना है

मैं अक्सर सोचता हूँ
सोच कर हैरान होता हूँ

फ़क़त कुछ ग्राम के इस ज़ेहन से ये सारी हलचल है
सितारे चाँद सूरज तितलियाँ जुगनू भरी रातें

ये सारा आर्ट और उस आर्ट पर तन्क़ीद जो कुछ है
किताबों से भरी हर लाइब्रेरी

और इंसानों के दिल में बढ़ रही दूरी
कहीं नाराज़गी आँखों में भर कर ख़ुद में ही घुटना

कहीं पर भूक बीमारी या पॉलिटिक्स की पॉवर
ये एफ़बी और ट्विटर पर जो जारी हैं सभी बहसें

और इंस्टाग्राम पर हर पल की तस्वीरें
ये दुनिया-भर की फिल्में और फ़ेस्टिवल

ये मेरे सामने बैठे हुए फूलों से नाज़ुक लोग
मिरे होंठों से एक इक नज़्म का यूँ टूटते रहना

फ़क़त कुछ ग्राम के इस ज़ेहन से ही सारी हलचल है
निगाहें मोड़ कर ये देखना मेरा

तुम्हारा मुस्कुराना भी
फ़लक को देख कर यूँ रूठ जाना भी

कि अपनी ज़िंदगी में रौशनी के नाम पर
कुछ भी नहीं है

और ये क्या खेल है
जिस में महज़ मातें ही मातें हैं

महज़ घातें ही घातें हैं
मगर ये दुख जो हम को रात-दिन महसूस होता है

हमारे ज़ेहन से उठता धुआँ है बस
अगर हम ग़ौर से देखें तो ढेरों राज़ खुलते हैं

कि मैं तुम से अगर कहता हूँ
तुम से इश्क़ करता हूँ

तो ये सुन कर तुम्हारी साँस की लय तेज़ चलती है
यही अन्फ़ास का पर्दा

जो उठता है
जो गिरता है

इसी अन्फ़ास के पर्दे के पीछे से
हमारा ज़ेहन सब कुछ देखता है

सोचता है बात करता है
सदी से बंद दरवाज़ों के पीछे से

कोई आवाज़ आती है
हमें लगता है ये सब कुछ हमीं तो कर रहे हैं

पर हक़ीक़त और ही कुछ है
हमें मा'लूम करना है

कि जलते ज़ेहन के जंगल का राजा कौन है आख़िर
हमें मा'लूम करना है

हमारे ज़ेहन में छुप कर इशारे कौन करता है
ये किस के हुक्म पर हम रोज़ मरते और जीते हैं

ये किस के वास्ते हम ज़िंदगी का ज़हर पीते हैं