मौत का राग नफ़ीरी पे बजाती आठी
लो झुलसती हुई लौ
आठी
बढ़ी
रेत पे जैसे धुआँ उठता हो
सरसराहट सी दरख़्तों में हुई
पत्ते मुरझा गए
गिरने लगे
वो उन के खड़कने की सदा मेरे ख़ुदा
लू के हमराह बढ़े
मौत के नाच का निकला था जुलूस
चौंक कर जाग उठे सेहन-ए-चमन में ताइर
आशियानों से जुदाई उन्हें मंज़ूर न थी
सहम कर उठे उड़े उड़ के वहीं आँ गिरे
उन की इस आख़िरी फ़रियाद की ग़मनाक सदा मेरे ख़ुदा
इक घटा-टोप अँधेरे में झुकाए हुए सर
हाथ आँखों पे रखे
बैठी है ग़मगीं उदास मजबूर
पहलू में अफ़्सुर्दा ख़ुशी को ले
साँस रुकने लगा
ख़ूँ जमने लगा
बे-कली ढूँढती फिरती है पनाह
रेंगता रेंगता ख़ौफ़ आया सिसकता हुआ साँप
बे-कली काँप उठी
ख़ौफ़ झपट कर उठा बे-कली नज़्अ' में थी
मुझ को बचा मेरे ख़ुदा
तीरगी काँपी
फ़ज़ा लर्ज़ी
खुली किरनों की राह
रूहें जो वुसअत-ए-आफ़ाक़ में आवारा सी थीं
ढूँढती फिरती थीं मंज़िल अपनी
फड़फड़ाए हुए पर अपने उठीं
और हवाओं में बढ़ीं
सामने जन्नत-ए-गुम-गश्ता नज़र आती थी

नज़्म
पशेमानी
तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद