ज़बाँ तुम काट लो या फिर लगा दो होंठ पर ताले
मिरी आवाज़ पर कोई भी पहरा हो नहीं सकता
मुझे तुम बंद कर दो तीरगी में या सलाख़ों में
परिंदा सोच का लेकिन ये ठहरा हो नहीं सकता
अगर तुम फूँक कर सूरज बुझा दोगे तो सुन लो फिर
जला कर ज़ेहन ये अपना उजाला छाँट लूँगा मैं
सियाही ख़त्म होएगी क़लम जब टूट जाएगा
तो अपने ख़ून में उँगली डुबा कर सच लिखूँगा मैं
नज़्म
आज़ादी
त्रिपुरारि